तुम्हारी कैद

याद है…?

जब तुमने मुझे आलिंगन में लिया था
प्रेम आसक्ति में
डूब गए थे हम दोनों
पर तुम्हें कहां ?
नहीं।
मुझे याद है
इस तरह कि
नहीं धुंधली होगी ताउम्र
ये याद
तभी तो कैद किया था
तुमने मुझे
अपने प्यार में
तो क्या हुआ
जो तुमने मुझे आजाद कर दिया
किसी बहाने से।
मैं तो रह गयी , वहीं के वहीं
जहां तुमने मुझे…!
मुझे तो वहां अब भी
तुम ही तुम नज़र आते हो
कुछ भी बदला नहीं है
मेरे होंठों पर तुम्हारे होठों के निशान
मेरे हाथों में तुम्हारे हाथों की गर्माहट
कुछ भी नहीं ।
बस तुमसे अब अजनबीयत की बू आने लगी है
जो हर दिन मुझे एक कतरा जला देती है
हर दिन ढलका देती एक बूंद
मेरी आंखों से
फिर भी आज
मैं तुम्हें इतना करीब पाती हूं
जैसे की तुम्हें छू सकूं
पर नहीं…!
तुम मेरे सामने ही तो बैठे हो
नहीं , तुम ये नहीं जानते
कि मैं भी यहीं हूं
तुम्हारे साये में छुप गयी हूं न मैं
इसीलिए ।
तुम कहीं व्यस्त हो
कहीं तो…!
शायद बस इसलिए कि कहीं
मुझसे नज़रें न मिल जाएं
इतने व्यस्त कि
तुम्हें मेरे होने न होने का आभास भी न रहा
और मैं
फिर भी तुम्हें देखे जा रही हूं
एकटक
जैसे की मेरी आंखें तुमसे
प्यार की भीख मांग रही हों
जैसे की ढूंढ रहीं हों तुम्हारा वो रंग
जिसमें तुमने मुझे रंगा था
सुनो, इस तरह खामोश मत बैठो
तुम्हारी ये खामोशी
मुझे अंदर ही अंदर खोखला कर रही है
ऐसा लगता है मानो
कहीं दर्द की शिद्दत से
मेरा कलेजा फट न जाए
सुनो , पर अब नहीं..
अब मैं सच में आजाद होना चाहती हूं
अपने अक्स को फिर से पाना चाहती हूं
जिसे खो दिया है मैंने
तुम्हारी चाहत में
अब मैं अपनी होना चाहती हूं ।
आजाद कर दो मुझे
अब सच में
कि तुम्हारी इस बेरहम कैद में
अब दम घुटने लगा है।
जाओ माफ़ करती हूं तुम्हें
तुम्हारे इस जुर्म के लिए
और मिन्नतें करुंगी ख़ुदा से
की वो भी….।
और मैं भी आजाद करती हूं तुम्हें
जाओ , फिर भी रह जाओगे तुम
ताउम्र मेरी यादों की जंजीरों में
पर तुम्हारी कैद…?
नहीं अब नहीं
और नहीं…!
– आभा मिश्रा

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